Neuralink का नया ट्रायल: दिमाग से बोलेगा इंसान?

Neuralink अक्टूबर में अपना अगला क्लीनिकल ट्रायल शुरू करने जा रहा है, जो अब तक के सबसे बड़े मेडिकल और टेक्नोलॉजी प्रयोगों में से एक माना जा रहा है। इस ट्रायल से पहले कंपनी ने एक क्वाड्रिप्लेजिक (पूरी तरह से लकवाग्रस्त) मरीज पर ब्रेन इम्प्लांट का सफल प्रयोग किया था, जिसमें मरीज ने सिर्फ अपने दिमाग के संकेतों से कंप्यूटर और डिवाइस को कंट्रोल किया। यह टेक्नोलॉजी अब अगली स्टेज में दिमागी सिग्नल्स को सीधे शब्दों में बदलने की कोशिश करेगी।

2024 में प्रकाशित Nature Neuroscience की एक स्टडी के अनुसार, वैज्ञानिकों ने पाया कि दिमाग की गतिविधियों से 92% सटीकता के साथ इंसान के इरादे वाले शब्दों को पहचाना जा सकता है। Neuralink इसी दिशा में अपने ब्रेन चिप को अपग्रेड कर रहा है। अगर यह ट्रायल सफल होता है, तो एएलएस (ALS), लक्ड-इन सिंड्रोम और अन्य न्यूरोलॉजिकल बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए यह जीवन बदलने वाली खोज साबित हो सकती है।

सोचिए, जब कोई व्यक्ति बोल नहीं सकता, लेकिन उसका दिमाग अब भी शब्द सोच रहा है—तो Neuralink का यह डिवाइस उन शब्दों को सीधे आवाज़ में बदल सकता है। यह तकनीक बिल्कुल उसी तरह क्रांतिकारी हो सकती है जैसे प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंग की वॉयस सिंथेसाइज़र मशीन ने उनकी आवाज़ दुनिया तक पहुँचाई थी। फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब टाइपिंग या स्क्रीन पर चुनने की जरूरत नहीं रहेगी, बल्कि दिमाग से ही सीधा संवाद संभव हो सकेगा।

हालाँकि, इस तकनीक के साथ कई चुनौतियाँ भी सामने आती हैं। 2023 में Journal of Neural Engineering में प्रकाशित एक विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने चेताया था कि दिमाग की गतिविधियों में हमेशा यह फर्क करना आसान नहीं होता कि कौन सा विचार “जानबूझकर” बोला जाना चाहता है और कौन सा सिर्फ अवचेतन (subconscious) सोच है। अगर Neuralink इस फर्क को पूरी तरह से सही तरीके से नहीं समझ पाता, तो यह तकनीक गलत शब्द भी डिकोड कर सकती है। यह भविष्य में एक बड़ा नैतिक और प्रैक्टिकल सवाल खड़ा कर सकता है।

इस ट्रायल को FDA की ओर से “Breakthrough Device” का दर्जा भी मिला है। यह एक दुर्लभ स्टेटस है, क्योंकि केवल 1% मेडिकल डिवाइस एप्लिकेशन को ही इतनी जल्दी स्वीकृति मिल पाती है। इससे साफ है कि अमेरिकी हेल्थ एजेंसियां भी Neuralink की टेक्नोलॉजी को मेडिकल फ्यूचर के लिए बेहद अहम मान रही हैं।

लेकिन इसके साथ ही बायोएथिक्स और लॉन्ग-टर्म सेफ्टी पर बहस भी जारी है। 2025 की Bioethics Review रिपोर्ट के अनुसार, मानव दिमाग में लगाए जाने वाले किसी भी डिवाइस के लंबे समय तक असर को लेकर अभी तक पुख़्ता डाटा मौजूद नहीं है। क्या ये डिवाइस हमेशा सुरक्षित रहेंगे? क्या दिमाग पर स्थायी साइड इफेक्ट हो सकते हैं? और क्या इसका दुरुपयोग भी संभव है? ये सारे सवाल Neuralink की राह को और कठिन बनाते हैं।

फिर भी, मेडिकल और टेक्नोलॉजी दोनों दृष्टिकोणों से यह प्रयोग इंसान की क्षमता को नए स्तर पर ले जाने वाला है। अगर अक्टूबर का ट्रायल सफल होता है, तो यह टेक्नोलॉजी न सिर्फ बोलने में असमर्थ लोगों के लिए वरदान बनेगी, बल्कि आने वाले समय में शायद हर इंसान अपने दिमाग से सीधे मशीनों से संवाद कर सकेगा। Neuralink का यह सफर अभी शुरुआती दौर में है, लेकिन इसकी संभावनाएँ इतनी विशाल हैं कि दुनिया भर की निगाहें इस पर टिकी हुई हैं।

Read Also